श्री वीरभद्र चालीसा
श्री वीरभद्र चालीसा
श्री वीरभद्र चालीसा का जाप भगवान वीरभद्र को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद पाने का सबसे शक्तिशाली तरीका है। जैसा कि वेदों और पुराणों में बताया गया है, वीरभद्र को भगवान शिव का शक्तिशाली लड़ाकू और डरावना रूप माना जाता है। वह शिव के क्रोध से उत्पन्न हुआ था। उनका वर्णन एक योद्धा के रूप में किया गया है।
शिव के वीरभद्र अवतार का संबंध शिव और सती के विवाह और सती के पिता प्रजापति दक्ष द्वारा संपन्न यज्ञ से है। दक्ष, ब्रह्मा के पुत्र थे और उन्हें प्रजापति अर्थात मानव जाति के राजा भी कहा जाता था।दक्ष की पुत्री सती, अपने बाल्यकाल से ही भगवान शिव की भक्त थी। वह हमेशा उनकी अराधना में ही अपना समय व्यतीत करती थी। बचपन में ही सती यह निश्चय कर लिया था कि वह बड़े होकर शिव को ही अपना पति स्वीकार करेंगी।लेकिन प्रजापति दक्ष को यह कभी भी स्वीकार नहीं था।
जब सती विवाह योग्य हुईं तब उनके पिता प्रजापति दक्ष ने स्वयंवर का आयोजन किया, ताकि सती अपनी पसंद से अपने लिए वर का चुनाव करें। इस स्वयंवर में राजा दक्ष ने सभी देवता गणों को आमंत्रित किया, लेकिन भगवान शिव को निमंत्रण नहीं भेजा गया।
जब सती स्वयंवर में उपस्थित हुईं तब अपने अराध्य शिव को वहां ना पाकर वे काफी निराश हुईं। उन्होंने अपनी वरमाला को हवा में उछाल दिया और शिव से उसे ग्रहण करने की प्रार्थना की। शिव उस समय वहां उपस्थित नहीं थे लेकिन वो माला सीधी जाकर शिव के गले में गिरी।अपनी पुत्री की यह हरकत देखकर दक्ष अत्याधिक क्रोधित हुए लेकिन मजबूरन शिव और सती के विवाह को स्वीकार करना ही पड़ा। लेकिन फिर भी उन्होंने कभी अपने हृदय से भगवान शिव को नहीं अपनाया।
दक्ष प्रजापति ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया जिसमें सभी ऋषि, मुनी, देवी और देवताओं को बुलाया था। इस यज्ञ में दक्ष ने शिव और सती को नहीं बुलाया था। माता सती अपने पति महादेव की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता दक्ष प्रजापति के द्वारा आयोजित इस यज्ञ में गई थीं।
पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुंच गयी, किंतु जब उसने वहां जाकर देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उनका सत्कार किया गया बल्कि पिता ने उनकी ओर देखा तक नहीं। अपने और अपने पति का घोर अपमान देखकर सती ने यज्ञ के भीतर ही कूदकर आत्मदाह कर दिया। यह देख वहां हाहाकार मच गया।
भगवान शंकर को जब यह समाचार मिला तो वे क्रोधित हो गए। उन्होंने दक्ष, उसकी सेना और वहां उपस्थित उनके सभी सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से वीरभद्र नामक एक गण उत्पन्न किया। उत्पन्न होते ही वीरभद्र शिव की आज्ञा से तेजी से यज्ञ स्थल पहुंचा और उसने वहां की भूमि को रक्त से लाल कर दिया और बाद में दक्ष को पकड़कर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
बाद में ब्रह्माजी और विष्णुजी कैलाश पर्वत पर गए और उन्होंने महादेव से विनयकर अपने क्रोध को शांत करने को कहा और राजा दक्ष को जीवन देकर यज्ञ को संपन्न करने का निवेदन किया। बहुत प्रार्थना करने के बाद भगवान शिव ने उनकी बात मान ली और दक्ष के धड़ से बकरे का सिर जोड़कर उसे जीवनदान दिया, जिसके बाद यह यज्ञ पूरा हुआ।
श्री वीरभद्र चालीसा का नियमित पाठ करने से मानसिक शांति मिलती है और यह आपके जीवन से सभी बुराइयों को दूर रखता है और आपको स्वस्थ, समृद्ध और समृद्ध बनाता है।
॥ दोहा ॥
वन्दो वीरभद्र शरणों शीश नवाओ भ्रात ।
ऊठकर ब्रह्ममुहुर्त शुभ कर लो प्रभात ॥
ज्ञानहीन तनु जान के भजहौंह शिव कुमार ।
ज्ञान ध्यान देही मोही देहु भक्ति सुकुमार ॥
॥ चौपाई ॥
जय-जय शिव नन्दन जय जगवन्दन । जय-जय शिव पार्वती नन्दन ॥१॥
जय पार्वती प्राण दुलारे। जय-जय भक्तन के दु:ख टारे ॥२॥
कमल सदृश्य नयन विशाला । स्वर्ण मुकुट रूद्राक्षमाला ॥३॥
ताम्र तन सुन्दर मुख सोहे । सुर नर मुनि मन छवि लय मोहे ॥४॥
मस्तक तिलक वसन सुनवाले । आओ वीरभद्र कफली वाले ॥५॥
करि भक्तन सँग हास विलासा । पूरन करि सबकी अभिलासा ॥६॥
लखि शक्ति की महिमा भारी । ऐसे वीरभद्र हितकारी ॥७॥
ज्ञान ध्यान से दर्शन दीजै । बोलो शिव वीरभद्र की जै ॥८॥
नाथ अनाथों के वीरभद्रा । डूबत भँवर बचावत शुद्रा ॥९॥
वीरभद्र मम कुमति निवारो । क्षमहु करो अपराध हमारो ॥१०॥
वीरभद्र जब नाम कहावै । आठों सिद्घि दौडती आवै ॥११॥
जय वीरभद्र तप बल सागर । जय गणनाथ त्रिलोग उजागर ॥१२॥
शिवदूत महावीर समाना । हनुमत समबल बुद्घि धामा ॥१३॥
दक्षप्रजापति यज्ञ की ठानी । सदाशिव बिन सफल यज्ञ जानी ॥१४॥
सति निवेदन शिव आज्ञा दीन्ही । यज्ञ सभा सति प्रस्थान कीन्ही ॥१५॥
सबहु देवन भाग यज्ञ राखा । सदाशिव करि दियो अनदेखा ॥१६॥
शिव के भाग यज्ञ नहीं राख्यौ । तत्क्षण सती सशरीर त्यागो ॥१७॥
शिव का क्रोध चरम उपजायो । जटा केश धरा पर मार्यो ॥१८॥
तत्क्षण टँकार उठी दिशाएँ । वीरभद्र रूप रौद्र दिखाएँ ॥१९॥
कृष्ण वर्ण निज तन फैलाए । सदाशिव सँग त्रिलोक हर्षाए ॥२०॥
व्योम समान निज रूप धर लिन्हो । शत्रुपक्ष पर दऊ चरण धर लिन्हो ॥२१॥
रणक्षेत्र में ध्वँस मचायो । आज्ञा शिव की पाने आयो ॥२२॥
सिंह समान गर्जना भारी । त्रिमस्तक सहस्र भुजधारी ॥२३॥
महाकाली प्रकटहु आई । भ्राता वीरभद्र की नाई ॥२४॥
॥ दोहा ॥
आज्ञा ले सदाशिव की चलहुँ यज्ञ की ओर ।
वीरभद्र अरू कालिका टूट पडे चहुँ ओर॥