माँ सरस्वती चालीसा
माँ सरस्वती चालीसा
॥ दोहा ॥
जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि ।
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि ॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु ।
दुष्जनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु ॥
॥ चौपाई ॥
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी । जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी ॥१॥
जय जय जय वीणाकर धारी । करती सदा सुहंस सवारी ॥२॥
रूप चतुर्भुज धारी माता । सकल विश्व अन्दर विख्याता ॥३॥
जग में पाप बुद्धि जब होती । तब ही धर्म की फीकी ज्योति ॥४॥
तब ही मातु का निज अवतारी । पाप हीन करती महतारी ॥५॥
वाल्मीकिजी थे हत्यारा । तव प्रसाद जानै संसारा ॥६॥
रामचरित जो रचे बनाई । आदि कवि की पदवी पाई ॥७॥
कालिदास जो भये विख्याता । तेरी कृपा दृष्टि से माता ॥८॥
तुलसी सूर आदि विद्वाना । भये और जो ज्ञानी नाना ॥९॥
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा । केव कृपा आपकी अम्बा ॥१०॥
करहु कृपा सोइ मातु भवानी । दुखित दीन निज दासहि जानी ॥११॥
पुत्र करहिं अपराध बहूता । तेहि न धरई चित माता ॥१२॥
राखु लाज जननि अब मेरी । विनय करउं भांति बहु तेरी ॥१३॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा । कृपा करउ जय जय जगदंबा ॥१४॥
मधुकैटभ जो अति बलवाना । बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना ॥१५॥
समर हजार पाँच में घोरा । फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा ॥१६॥
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला । बुद्धि विपरीत भई खलहाला ॥१७॥
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी । पुरवहु मातु मनोरथ मेरी ॥१८॥
चंड मुण्ड जो थे विख्याता । क्षण महु संहारे उन माता ॥१९॥
रक्त बीज से समरथ पापी । सुरमुनि हदय धरा सब काँपी ॥२०॥
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा । बारबार बिन वउं जगदंबा ॥२१॥
जगप्रसिद्ध जो शुंभनिशुंभा । क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा ॥२२॥
भरतमातु बुद्धि फेरेऊ जाई । रामचन्द्र बनवास कराई ॥२३॥
एहिविधि रावण वध तू कीन्हा । सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा ॥२४॥
को समरथ तव यश गुन गाना । निगम अनादि अनंत बखाना ॥२५॥
विष्णु रुद्र जस कहिन मारी । जिनकी हो तुम रक्षाकारी ॥२६॥
रक्त दन्तिका और शताक्षी । नाम अपार है दानव भक्षी ॥२७॥
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा । दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा ॥२८॥
दुर्ग आदि हरनी तू माता । कृपा करहु जब जब सुखदाता ॥२९॥
नृप कोपित को मारन चाहे । कानन में घेरे मृग नाहे ॥३०॥
सागर मध्य पोत के भंजे । अति तूफान नहिं कोऊ संगे ॥३१॥
भूत प्रेत बाधा या दुःख में । हो दरिद्र अथवा संकट में ॥३२॥
नाम जपे मंगल सब होई । संशय इसमें करई न कोई ॥३३॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई । सबै छांड़ि पूजें एहि भाई ॥३४॥
करै पाठ नित यह चालीसा । होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा ॥३५॥
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै । संकट रहित अवश्य हो जावै ॥३६॥
भक्ति मातु की करैं हमेशा । निकट न आवै ताहि कलेशा ॥३७॥
बंदी पाठ करें सत बारा । बंदी पाश दूर हो सारा ॥३८॥
रामसागर बाँधि हेतु भवानी । कीजै कृपा दास निज जानी ॥३९॥
॥ दोहा ॥
मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप ।
डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप ॥
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु ।
राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु ॥