श्री वामन स्तोत्र

श्री वामन स्तोत्र

श्री वामन स्तोत्र

श्री वामन स्तोत्र भगवान विष्णु के पांचवें अवतार को समर्पित है। वामन भगवान विष्णु के पाँचवे तथा त्रेता युग के पहले अवतार थे। इसके साथ ही यह विष्णु के पहले ऐसे अवतार थे जो मानव रूप में प्रकट हुए इन्हें दक्षिण भारतमें उपेन्द्र नाम से भी जाना जाता है। वामन अवतार को विष्णु का महत्वपूर्ण अवतार माना जाता है। जिन्होंने कश्यप ऋषि की पत्नी अदिति के गर्भ से जन्म लिया था, कथा कुछ इस प्रकार है

सतयुग में प्रतापी दैत्यराज बलि हुए थे जो विष्णु भक्त भगवान प्रह्रलाद के पौत्र थे। यद्दपि वह एक दैत्य था फिर भी ईश्वर के प्रति निष्ठा थी। यही कारण था कि वह धर्मात्मा एवं सत्यव्रती था। बलि ने अपने शक्ति के बल पर पृथ्वि और स्वर्ग लोक को भी जीत लिया था। जिस कारण से सभी देवी-देवताओं में हडकंप मच गया था।

दैत्य गुरु शुक्राचार्य राजा बलि के लिए एक यज्ञ का आयोजन कर रहे थे। इससे असुरों की शक्ति में वृद्धि हो जाती हैं और असुरों को हराना मुश्किल हो जाता। जब देवताओं के राजा इन्द्र को इस बात का ज्ञान हुआ तब राजा बलि से रक्षा के लिए सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गए भगवान विष्णु उनकी सहायता करने का आश्वासन देकर वापस भेज देते है।

दूसरी तरफ देवताओं की दुर्दशा से ऋषि कश्यप की अर्धाग्नि अदिति भी परेशान थी। ऋषी कश्यप के कहने से माता अदिति पयों व्रत का अनुष्ठान करती है, जो पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता हैं।

भगवान विष्णु अदिति के तपस्या से प्रसन्न होकर वामन रूप में उनके गर्भ से उत्पन्न होने का वरदान दे देते हैं। भाद्रपक्ष मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि के दिन माता अदिति के गर्भ से जन्म लेकर ब्रह्मचारी ब्राह्मण का रूप धारण कर लेते हैं।

वामन अवतार की कथा

एक बार की बात है राजा बलि नर्मदा नदी के किनारे यज्ञ कर रहे थे। तब भगवान विष्णु वामन रूप में यज्ञ स्थल पर पहुंचे। वामनदेव को ब्राह्राण में देखकर राजा बलि ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया।उन्हें आसन पर बिठाकर बलि विनम्र स्वर में बोला – ब्राह्मणकुमार! आज्ञा दीजिए, मैं आपकी क्या सेवा करू? धन स्वर्ण, अन्न, भूमि आपको जिस वस्तु की इच्छा हो, नि:संकोच मांग लीजिए। मैं आपकी समस्त इच्छाएँ पूर्ण करूंगा।

तब वामन देव ने राजा बलि से तीन पग भूमि देने का आग्रह किया। दैत्यराज बलि हाथ में गंगाजल लेकर उन्हें तीन पग भूमि देने का संकल्प करने लगे। शुक्राचार्य ने बलि को खूब समझाया ये देवताओ की चाल है, ये श्री हरि विष्णु है। आप संकल्प मत कीजिए। राजा बलि ने सोचा बालक ब्राह्राण के तीन पग होते ही कितने हैं। उन्होंने सोचा कि मैं तीनों लोकों का स्वामी हूं और मेरे लिए तीन पग भूमि कोई बड़ी बात नहीं है।

मगर राजा बलि दैत्य गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी अपने वचन पर अडिग रहते हुए 3 पग भूमि दान करने का वचन दे देते हैं। बलि द्वारा संकल्प करते ही वहाँ एक अद्भुत घटना घटी। भगवान् वामन ने अपने शरीर को इतना विशालकाय कर लिया कि उनका विराट् स्वरूप देखकर ऋषि-मुनि और दैत्य आश्चर्यचकित रह गए।

तब वामन देव ने अपने पहले पग से पृथ्वी और दूसरे पग से आकाश को नाप लिया। अब एक पग नापने के लिए बच गया तब राजा बलि ने कहा कि वामन देव आप तीसरा पग मेरे सिर पर रख सकते हैं। जब भगवान विष्णु जो कि वामन अवतार में उन्होंने जैसे ही तीसरा पग बलि के सिर पर रखा वह पाताल चला गया।

राजा बलि के द्वारा वचन पालन करने पर भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने के लिए कहते हैं। बलि भगवान विष्णु से दिन रात अपने सामने रहने का वर मांग लेते है। श्री विष्णु अपने वचन का पालन करते हुए पाताल लोक में राजा बलि का द्वारपाल बनना स्वीकार कर लेते हैं।

इस प्रकार भगवान विष्णु ने वामनावतार लेकर माता अदिति को दिए वरदान को पूर्ण किया, इन्द्र को उनका राज वापस दिलवाया तथा पृथ्वी को असुरों से मुक्त करवाया।

श्री वामन स्तोत्र के पाठ से जीवन में व्याप्त सभी प्रकार के दुख और संकट दूर हो जाते हैं।

श्री वामन स्तोत्र

अदितिरुवाच ।

नमस्ते देवदेवेश सर्वव्यापिञ्जनार्दन ।
सत्त्वादिगुणभेदेन लोकव्य़ापारकारणे ॥ 1 ॥

नमस्ते बहुरूपाय अरूपाय नमो नमः ।
सर्वैकाद्भुतरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने ॥ 2 ॥

नमस्ते लोकनाथाय परमज्ञानरूपिणे ।
सद्भक्तजनवात्सल्यशीलिने मङ्गलात्मने ॥ 3॥

यस्यावताररूपाणि ह्यर्चयन्ति मुनीश्वराः ।
तमादिपुरुषं देवं नमामीष्टार्थसिद्धये ॥ 4 ॥

यं न जानन्ति श्रुतयो यं न जायन्ति सूरयः ।
तं नमामि जगद्धेतुं मायिनं तममायिनम् ॥ 5 ॥

यस्य़ावलोकनं चित्रं मायोपद्रववारणं ।
जगद्रूपं जगत्पालं तं वन्दे पद्मजाधवम् ॥ 6 ॥

यो देवस्त्यक्तसङ्गानां शान्तानां करुणार्णवः ।

करोति ह्यात्मना सङ्गं तं वन्दे सङ्गवर्जितम् ॥ 7 ॥

यत्पादाब्जजलक्लिन्नसेवारञ्जितमस्तकाः ।
अवापुः परमां सिद्धिं तं वन्दे सर्ववन्दितम् ॥ 8 ॥

यज्ञेश्वरं यज्ञभुजं यज्ञकर्मसुनिष्ठितं ।
नमामि यज्ञफलदं यज्ञकर्मप्रभोदकम् ॥ 9 ॥

अजामिलोऽपि पापात्मा यन्नामोच्चारणादनु ।
प्राप्तवान्परमं धाम तं वन्दे लोकसाक्षिणम् ॥ 10 ॥

ब्रह्माद्या अपि ये देवा यन्मायापाशयन्त्रिताः ।

न जानन्ति परं भावं तं वन्दे सर्वनायकम् ॥ 11 ॥

हृत्पद्मनिलयोऽज्ञानां दूरस्थ इव भाति यः ।

प्रमाणातीतसद्भावं तं वन्दे ज्ञानसाक्षिणम् ॥ 12 ॥

यन्मुखाद्ब्राह्मणो जातो बाहुभ्य़ः क्षत्रियोऽजनि ।

तथैव ऊरुतो वैश्याः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥ 13 ॥

मनसश्चन्द्रमा जातो जातः सूर्यश्च चक्षुषः ।

मुखादिन्द्रश्चाऽग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥ 14 ॥

त्वमिन्द्रः पवनः सोमस्त्वमीशानस्त्वमन्तकः ।

त्वमग्निर्निरृतिश्चैव वरुणस्त्वं दिवाकरः ॥ 15 ॥

देवाश्च स्थावराश्चैव पिशाचाश्चैव राक्षसाः ।

गिरयः सिद्धगन्धर्वा नद्यो भूमिश्च सागराः ॥ 16 ॥

त्वमेव जगतामीशो यन्नामास्ति परात्परः ।

त्वद्रूपमखिलं तस्मात्पुत्रान्मे पाहि श्रीहरे ॥ 17 ॥

इति स्तुत्वा देवधात्री देवं नत्वा पुनः पुनः ।

उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा हर्षाश्रुक्षालितस्तनी ॥ 18 ॥

अनुग्राह्यास्मि देवेश हरे सर्वादिकारण ।

अकण्टकश्रियं देहि मत्सुतानां दिवौकसाम् ॥ 19 ॥

अन्तर्यामिन् जगद्रूप सर्वभूत परेश्वर ।

तवाज्ञातं किमस्तीह किं मां मोहयसि प्रभो ॥ 20 ॥

तथापि तव वक्ष्यामि यन्मे मनसि वर्तते ।

वृथापुत्रास्मि देवेश रक्षोभिः परिपीडिता ॥ 21 ॥

एतन्न हन्तुमिच्छामि मत्सुता दितिजा यतः ।

तानहत्वा श्रियं देहि मत्सुतानामुवाच सा ॥ 22 ॥

इत्युक्तो देवदेवस्तु पुनः प्रीतिमुपागतः ।

उवाच हर्षयन्साध्वीं कृपयाऽभि परिप्लुतः ॥ 23 ॥

श्री भगवानुवाच

प्रीतोऽस्मि देवि भद्रं ते भविष्यामि सुतस्तव ।

यतः सपत्नीतनयेष्वपि वात्सल्यशालिनी ॥ 24 ॥

त्वया च मे कृतं स्तोत्रं पठन्ति भुवि मानवाः ।

तेषां पुत्रो धनं सम्पन्न हीयन्ते कदाचन ॥ 25 ॥

अन्ते मत्पदमाप्नोति यद्विष्णोः परमं शुभं ।

|| इति श्रीपद्मपुराणे श्री वामन स्तोत्र ||